प्रस्तावना
लेकिन आश्चर्यजनक रूप से भारत में कारखानों में कार्यरत श्रमिकों की दशाओं में सुधार एवं उनके लिये विधान बनाने की मांग, सर्वप्रथम भारत में नहीं अपितु ब्रिटेन में लंकाशायर के कपड़ा कारखानों के मालिकों द्वारा उठायी गयी। उन्हें डर था कि भारतीय कपड़ा उद्योग सस्ती मजदूरी के कारण उनका प्रतिद्वंद्वी न बन जाये। इस मांग से भारतीय श्रमिक नेता काफी प्रभावित हुये तथा उन्होंने मांग की की भारतीय कपड़ा मिलों की निम्न स्तरीय कार्य दशाओं में सुधार किया जाये तथा मजदूरों का शोषण रोका जाये। उन्होंने कारखानों में कार्य दशाओं (working Conditions) की जांच करने के लिये एक आयोग गठित करने की मांग भी की। 1875 में ऐसे प्रथम आयोग की नियुक्ति की गयी तथा 1881 में प्रथम कारखाना अधिनियम बनाया गया।
भारतीय कारखाना अधिनियम, 1881
यह अधिनियम बाल श्रमिकों की समस्याओं से संबंधित था। (7 से 12 वर्ष की आयु के बीच के)। इसके मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थे-
भारतीय कारखाना अधिनियम, 1891
प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध
1835 में चार्ल्स मेटकाफ ने भारतीय प्रेस पर लगाये गये प्रतिबंधों को हटा लिया। लेकिन लिटन, जो कि इस बात से भयभीत था कि प्रेस के द्वारा राष्ट्रवादी, भारतीयों में चेतना का प्रसार कर सरकार के लिये खतरा पैदा कर सकते हैं वह भारतीय प्रेस के दमन पर उतर आया तथा उसने 1878 में अलोकप्रिय भारतीय भाषा समाचार-पत्र अधिनियम (वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट) पारित कर दिया। तीव्र जन-विरोध के कारण लार्ड रिपन ने 1882 में इस घृणित अधिनियम को रद्द कर दिया। इसके पश्चात लगभग दो दशकों तक भारतीय प्रेस स्वतंत्रता के साये में फलता-फूलता रहा। लेकिन स्वदेशी एवं बंग-भंग विरोधी आंदोलन के समय 1908 एवं 1910 में इस पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये।
रंगभेद की नीति
अंग्रेजों ने प्रजातीय सर्वश्रेष्ठता के विचार का अत्यंत व्यवस्थित ढंग से पालन किया। अपनी रंगभेद की नीति के चलते उन्होंने खुद को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया तथा प्रशासन के सर्वोच्च पदों से भारतीयों को दूर रखा। अंग्रेजों ने नागरिक प्रशासन एवं सेना के साथ ही रेल के डिब्बों, पाकों, होटलों तथा क्लबों इत्यादि में भी रंगभेद की नीति को लागू करने का घृणित प्रयास किया। अपनी प्रजातीय सर्वश्रेष्ठता को प्रदर्शित करने के लिये अंग्रेजों ने भारतीयों को सरेआम पीटने, जिंदा जला देने तथा उनकी हत्या कर देने जैसे अमानवीय एवं कायरतापूर्ण हथकंडे भी अपनाये। एक स्थान पर लार्ड एल्गिन ने लिखा कि “हम भारत पर केवल इसलिये राज कर सके क्योंकि हम श्रेष्ठ नस्ल के थे। यद्यपि हमें बात का बराबर एहसास कराते रहना होगा कि वे हमसे निकृष्ट हैं, तभी हमारे साम्राज्य के हित सुरक्षित रह सकेंगे”।
विदेश नीति अंग्रेजों की विदेश नीति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों की संरक्षक थी। किंतु विदेश नीति का स्वरूप ऐसा था कि इसने समय-समय पर पड़ोसी देशों के साथ विवादों को भी जन्म दिया। इन विवादों के कई कारण थे। प्रथम, संचार के आधुनिक साधनों के प्रयोग ने भारत की राजनीतिक एवं प्रशासनिक रूप से एक सूत्र में आबद्ध कर दिया। इसके साथ ही देश की रक्षा एवं अन्य कार्यों के निमित्त सरकार एवं प्रशासन की पहुंच देश के दूरदराज एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में आसान हो गयी। इसके फलस्वरूप सीमावर्ती क्षेत्रों में झड़पें होने लगीं।
द्वितीय, ब्रिटिश सरकार का एक प्रमुख उद्देश्य यह था कि वह एशिया एवं अफ्रीका में-
इन उद्देश्यों के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों ने भारत के सीमाक्षेत्र से बाहर अनेक विजयें कीं तथा अपने साम्राज्य का विस्तार किया किंतु इस क्रम में उसकी तत्कालीन अन्य साम्राज्यवादी ताकतों यथा-रूस एवं फ्रांस से झड़पें भी हुयीं।
जबकि, इन सभी कार्यों में ब्रिटेन के स्वार्थों की पूर्ति हो रही थी, भारत के धन को अंधाधुंध तरीके से व्यय किया जा रहा था एवं भारतीयों का खून बह रहा था।
sir bhut achha lga padh ke isi tarh ke knowladge agar ap hme provide krate rhege or v aage to mere liye helpful hoga padhai se related facts & concept ko samjhne me or meri self study me ek sahi disa ki yor hoti hui malum parene se hmare andar confidance aayega jisse mai apni padhi jari rakh saku.
Vivek Banchhor Sep 2, 2017
Aise hi.... Kisi vishay par... Shudh Hindi me.... Visleshan ... Hindi madyam me IS karne wale vidyarthiyo... Ke liye... Mil ka pattar sabit hoga....