भारत में कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण
भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका सैद्धांतिक रूप से पृथक है किंतु व्यावहारिक रूप से कार्यपालिका विधायिका का एक भाग है. और चूंकि कार्यपालिका हमेशा बहुमत में होती है, इसीलिए इस पर विधायिका का नियंत्रण कमजोर ही प्रतीत होता है.
संसदीय नियंत्रण
भारत के संविधान ने सरकार के संसदीय रूप की स्थापना की है जिसमें कार्यपालिका अपने कृत्यों के लिए संसद के प्रति जिम्मेदार होती है.
संसद, बहस और चर्चाओं के माध्यम से कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है. इसके पास शून्य काल और प्रश्नकाल के दौरान छोटी चर्चाएं, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, निंदा प्रस्ताव और कार्य स्थगन प्रस्ताव जैसे साधन है.
यह सरकारी आश्वासन संबंधी समिति, अधीनस्थ विधान संबंधी समिति, याचिका समिति जैसी अपनी समितियों की सहायता से कार्यपालिका की गतिविधियों का पर्यवेक्षण भी करती है.
मंत्री सामूहिक रूप से संसद के प्रति और विशिष्ट रूप से लोकसभा के प्रति जिम्मेदार होती है. उनकी सामूहिक जिम्मेदारी के साथ साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी भी होती है, अर्थात प्रत्येक मंत्री अपने मंत्रालय के कुशल प्रशासन के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है. वे अपने पद पर तब तक बने रहते हैं जब तक उन्हें लोकसभा का विश्वास प्राप्त होता है.
संसदीय नियंत्रण की अप्रभावशीलता
वास्तविकता में संसदीय नियंत्रण उतना प्रभावी नहीं होता है जितना कि उसे होना चाहिए. इसके लिए निम्नलिखित कारक जिम्मेदार है —
- संसद के पास विशाल एवं जटिल प्रशासन को नियंत्रित करने का ना तो समय है और ना ही विशेषज्ञता.
- संसद का वित्तीय नियंत्रण, अनुदान के लिए मांगों की तकनीकी प्रकृति द्वारा बाधित होता है जिसके लिए आर्थिक विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है.
- लोक लेखा समिति जैसी वित्तीय समितियां केवल कार्योत्तर लेखापरीक्षा करती है, अर्थात वे व्यय होने के बाद उसकी परीक्षा करती है.
- प्रत्यायोजित विधायन के विकास में विस्तृत कानून बनाने में संसद की भूमिका कम कर दी है और नौकरशाही की शक्तियों को बढ़ा दिया है.
- राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश को का बार-बार प्रख्यापन संसद की विधान निर्माण शक्ति को कम कर देता है.
- संसद में मजबूत और स्थिर विपक्ष का अभाव और संसदीय व्यवहार और नैतिकता में आई गिरावट भारत में प्रशासन पर विधाई नियंत्रण की प्रभावशीलता में योगदान किया है.
संविधान की 10वीं अनुसूची के अंतर्गत महत्वपूर्ण प्रावधान
संविधान की 10वीं अनुसूची का सूत्रपात 52 वें संशोधन से हुआ था, जिसमें विधायकों को दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराने की प्रक्रिया निर्धारित की गई थी. 51 वें संशोधन अधिनियम 2003 के अंतर्गत इसमें फिर से संशोधन किया गया था. दसवीं अनुसूची के मुख्य प्रावधान इस प्रकार है–
किसी सदन का सदस्य, जो किसी राजनीतिक दल से संबंध है, यदि वह स्वयं से अपने दल की सदस्यता का त्याग कर देता है या अपने दल के निर्देशों का पालन नहीं करता है तो वह सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य हो जाता है.
किसी सदन का एक निर्दलीय प्रत्याशी यदि चुनाव के पश्चात किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है तो वह अयोग्य हो जाता है.
एक नामित सदस्य यदि 6 माह के पश्चात किसी दल में सम्मिलित हो जाता है तो वह आयोग हो जाता है.
किसी व्यक्ति को तब अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता, जब वह अपने दल के दो तिहाई सदस्यों के किसी अन्य दल के साथ विलय के परिणाम स्वरुप किसी नए राजनीतिक दल में सम्मिलित होता है या उसके एक पृथक दल के रूप में कार्य करने लगता है.
किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का निर्णय अधिकार सदन के अध्यक्ष सभापति को ही होता है.
यदि सभापति अध्यक्ष द्वारा दल-बदल किए जाने से संबंधित शिकायत सदन को प्राप्त होती है तो उसी सदन द्वारा निर्वाचित कोई सदस्य उस पर निर्णय लेता है.
जब यह कानून पारित हुआ था तो ऐसे आरोप लगे थे कि इसमें विधायकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर अतिक्रमण होता है क्योंकि
यह दलबदल और असहमति में भेद नहीं करता है.
यह प्रत्येक विषय पर सदस्यों के दृष्टिकोण और मतदान को नियंत्रित करता है.
मौलिक कर्तव्य का महत्व तथा इनकी सीमाएं
संविधान में मौलिक कर्तव्यों को 42वें संशोधन के द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था. इनका उद्देश्य, भारत के प्रत्येक नागरिकों के लिए कर्तव्यों का एक समुच्चय प्रस्तुत करना था.
दशकों से इनकी निरंतरता से इनके महत्व और प्रासंगिकता का पता चलता है. यह नागरिकों को इस तथ्य का स्मरण दिलाने का कार्य करते हैं उन्हें अपने अधिकारों का आनंद लेने के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी बोध होना चाहिए.
मौलिक कर्तव्यों से विभिन्न वैधानिक उन्नतियों को आधार मिला है.
नागरिकों के बीच इन्हें प्राकृतिक न्याय के रूप में प्रचारित किया जाता है.
देश और समाज विरोधी गतिविधियों को मौलिक कर्तव्यों की छत्रछाया में रोका जाता है.
परंतु फिर भी, कुछ ऐसे अनुरोध है जो इनकी सर्वसम्मत स्वीकृति में बाधक है. वह इस प्रकार है–
प्राथमिक रूप से यह न्यायिक कार्यवाही से परे है मौलिक अधिकारों की भांति इन पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती.
ऐसा प्रतीत होता है कि, मौलिक कर्तव्यों की यथार्थ प्रकृति उनकी अस्पष्ट व्याख्या में कहीं खो गई है,इसीलिए इनका प्रभाव कम है.
इनके महत्व के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने हेतु बहुत अधिक प्रयास नहीं किए गए हैं, इसी लिए नागरिकों के बीच इनके बारे में मौलिक अधिकारों जैसा बोध नहीं है.
संविधान के भाग IV के एक उपांग मात्र होने के कारण, मौलिक अधिकारों जैसा महत्व मौलिक कर्तव्यों का नहीं रहा है.
मौलिक कर्तव्यों के वास्तविक महत्व को कम कर देने वाले इन अवरोधों के बावजूद भी भारत जैसे विकासशील देश में नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों में सामंजस्य बनाने के लिए संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है.
Supriya Singh Aug 17, 2018
Soooooooooo,nyc