प्रस्तावना
इस लेख में हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के चार प्रमुख बिंदुओं प्रथम गोलमेज सम्मलेन , गाँधी – इरविन समझौता , समझौते की सहमति के लिए कराची अधिवेशन ,द्वितीय गोलमेज सम्मलेन , पूना पैक्ट एवं आंदोलन को आगे बढ़ाने की रणनीति पर चर्चा करेंगे।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन
सरकार ने 12 नवंबर 1930 को साइमन कमीशन की रिपोर्ट तथा संवैधानिक मुद्दों पर चर्चा करने के निमित्त, लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया। ब्रिटिश सरकार एवं भारतीयों के मध्य समान स्तर पर आयोजित की गयी यह प्रथम वार्ता थी। जहां कांग्रेस एवं अधिकांश व्यवसायिक संगठनों ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया, वहीँ मुस्लिम लीग, हिन्दू मह्रासभा, उदारवादियों, दलित वर्ग तथा भारतीय रजवाड़ों ने इस सम्मलेन में भाग लिया।
इस सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधि मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं।
- तीनों ब्रिटिश दल-लिबरल, कंजरवेटिव और श्रमिक दल के प्रतिनिधि।
- ब्रिटिश भारत से ब्रिटिश सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य।
- भारत के राज्यों से राजकुमार या उनके द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि।
सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के चयन का मापदण्ड असमान था। ब्रिटेन की तीनों पार्टियों का प्रतिनिधित्व अलग-अलग प्रतिनिधि कर रहे थे, जबकि भारतीय प्रतिनिधियों में से कुछ वायसराय द्वारा मनोनीत थे तथा कुछ का मनोनयन भारतीय रजवाड़ों ने किया था। इस सम्मेलन में राज्य लोक संगठन का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। प्रतिनिधियों के मनोनयन का मुख्य आधार ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा तथा उनके स्वशासन संबंधी विचार थे।
इस सम्मेलन में सम्मिलित सभी दलों के प्रतिनिधि केवल अपने व्यक्तिगत हितों के पक्षपोषण में प्रयासरत रहे। सम्मेलन के दौरान केवल समस्यायें व विचारार्थ विषय ही प्रस्तुत किये गये लेकिन कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आ सका। वैसे भी भारत के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन ‘कांग्रेस’ के सम्मेलन में भाग न लेने से यह सम्मेलन अधूरा सा हो गया था। अंततः 19 जनवरी 1931 को बिना किसी वास्तविक उपलब्धि के यह सम्मेलन समाप्त हो गया।
गांधी-इरविन समझौता
25 जनवरी 1931 को गांधीजी तथा कांग्रेस के अन्य सभी प्रमुख नेता बिना शर्त कारावास से रिहा कर दिये गये। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने गांधीजी को वायसराय से चर्चा करने के लिये अधिकृत किया। तत्पश्चात 19 फरवरी 1931 को गांधीजी ने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन से भेंट की और उनकी बातचीत 15 दिनों तक चली। इसके परिणामस्वरूप 5 मार्च 1931 को एक समझौता हुआ, जिसे गांधी-इरविन समझौता कहा जाता है। इस समझौते ने कांग्रेस की स्थिति को सरकार के बराबर कर दिया। इस समझौते में सरकार की ओर से लार्ड इरविन इस बात पर सहमत हुये कि-
- हिंसात्मक अपराधियों के अतिरिक्त सभी राजनैतिक कैदी छोड़ दिये जायेंगे।
- अपहरण की सम्पत्ति वापस कर दी जायेगी।
- विभिन्न प्रकार के जुर्मानों की वसूली को स्थगित कर दिया जायेगा
- सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र दे चुके भारतीयों के मसले पर सहानुभूतिपूर्वक विचार-विमर्श किया जायेगा।
- समुद्र तट की एक निश्चित सीमा के भीतर नमक तैयार करने की अनुमति दी जायेगी।
- मदिरा, अफीम और विदेशी वस्तओं की दुकानों के सम्मुख शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की आज्ञा दी जायेगी।
- आपातकालीन अध्यादेशों को वापस ले लिया जायेगा।
किन्तु वायसराय ने गांधीजी की निम्न दो मांगे अस्वीकार कर दी-
- पुलिस ज्यादतियों की जांच करायी जाये।
- भगत सिंह तथा उनके साथियों की फांसी की सजा माफ कर दी जाये।
कांग्रेस की ओर से गांधीजी ने आश्वासन दिया कि-
- (i) सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थापित कर दिया जायेगा। तथा
- (ii) कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में इस शर्त पर भाग लेगी कि सम्मेलन में संवैधानिक प्रश्नों के मुद्दे पर विचार करते समय परिसंघ, भारतीय उत्तरदायित्व तथा भारतीय हितों के संरक्षण एवं सुरक्षा के लिये अपरिहार्य मुद्दों पर विचार किया जायेगा। (इसके अंतर्गत रक्षा, विदेशी मामले, अल्पंसख्यकों की स्थिति तथा भारत की वित्तीय साख जैसे मुद्दे शामिल होगे)।
सविनय अवज्ञा आदोलन का मूल्यांकन
क्या गांधी-इरविन समझौता अपने उद्देश्यों से पीछे हट गया था?
गांधीजी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन की स्थगित किये जाने के निर्णय से यह बात रेखांकित होती है कि गांधी-इरविन समझौता अपने उद्देश्यों से पीछे नहीं हटा था क्योंकि-
- किसी भी जनआंदोलन के लिये आवश्यक है कि उसका कार्यकाल छोटा ही अर्थात उसे ज्यादा लंबा न खींचा जाये।
- कार्यकर्ताओं या सत्याग्रहियों के विपरीत, जनसामान्य की त्याग करने की क्षमता सीमित होती है।
- 1930 के पश्चात, आंदोलन में विरक्तता के लक्षण परिलक्षित होने लगे थे। विशेषरूप से उन दुकानदारों एवं व्यापारियों में, जिनमें आंदोलन के प्रति अभूतपूर्व उत्साह था।
- निःसंदेह युवा भी निराश हो चुके थे। उन्होंने बड़ी तत्परता एवं गर्मजोशी से आंदोलन में सहभागिता निभायी किंतु उन्हें निराशा ही हाथ लगी। गुजरात के किसानों में भी निराशा का वातावरण व्याप्त था क्योंकि उन्हें उनकी भूमि वापस नहीं लौटायी गयी थी। (वास्तव में गुजराती काश्तकारों को उनकी जमीन वापस तभी मिली, जब सूबे में कांग्रेस सरकार का गठन हुआ)। किंतु इसके पश्चात भी अधिकांश भारतीय इस बात से प्रसन्न थे कि उपनिवेशी सरकार ने उनके आदोलन साथ समझौते पर दस्तखत किये। आंदोलनकारियों को जब जेल से रिहा किया गया तो जनता ने किसी नायक की तरह उनका स्वागत किया।
सविनय अवज्ञा आदोलन की असहयोग आंदोलन से तुलना
- इस आंदोलन ने ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किया, जबकि असहयोग आंदोलन का लक्ष्य ‘स्वराज्य’ था।
- आंदोलन में कानून की अवज्ञा को मुख्य हथियार के रूप में प्रयुक्त किया गया, जबकि असहयोग आंदोलन का मुख्य उद्देश्य उपनिवेशी शासन से असहयोग था।
- बुद्धिजीवी वर्ग के सहयोग में थोड़ा गिरावट आयी तथा विरोध प्रदर्शन में उसने वह तत्परता नहीं दिखाई, जैसा कि असहयोग आंदोलन के दौरान था। जैसे- वकीलों द्वारा वकालत छोड़ना एवं छात्रों द्वारा सरकारी शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार कर राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश लेना।
- इस आंदोलन में मुसलमानों की सहभागिता असहयोग आंदोलन के समान नहीं थी।
- आंदोलन में कोई बड़ा मजदूर विद्रोह परिलक्षित नहीं हुआ।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन में किसानों एवं व्यावसायिक वर्ग की व्यापक भागेदारी ने अन्य वर्गों की क्षति की पूर्ति की।
- इस आंदोलन में राजनीतिक बदियों की संख्या असहयोग आदोलन की तुलना में लगभग तीन गुनी अधिक थी।
- सांगठनिक रूप से कांग्रेस ज्यादा सशक्त थी।
कांग्रेस का कराची अधिवेशन
गांधी-इरविन समझौते या दिल्ली समझौते को स्वीकृति प्रदान करने के लिये कांग्रेस का अधिवेशन 29 मार्च 1931 में कराची में आयोजित किया गया। वल्लभभाई पटेल इसके अध्यक्ष थे। इससे छह दिन पहले भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फांसी दी गयी थी। यद्यपि गांधीजी ने इन्हें बचाने की कोशिश की थी, किंतु भारतीय गांधीजी से तीव्र नाराज थे। गांधीजी से अपेक्षा थी कि वे समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे। गांधीजी को अपनी कराची यात्रा के दौरान जनता के तीव्र रोष का सामना करना पड़ा। उनके खिलाफ प्रदर्शन किये गये तथा उन्हें काले झंडे दिखाये गये। पंजाब नौजवान सभा ने भगत सिंह एवं उनके कामरेड साथियों को फांसी की सजा से न बचा पाने के लिये गांधीजी की तीव्र आलोचना की।
कराची में कांग्रेस का प्रस्ताव
राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रमों से सम्बद्ध जो प्रस्ताव पारित किये गये, उनमें सम्मिलित थे
- लगान और मालगुजारी में उचित कटौती।
- अलाभकर जोतों को लगान से मुक्ति।
- किसानों को कर्ज से राहत और सूदखोरों पर नियंत्रण।
- मजदूरों के लिये बेहतर सेवा शर्ते, महिला मजदूरों की सुरक्षा तथा काम के नियमित घंटे।
- मजदूरों और किसानों को अपने यूनियन बनाने की स्वतंत्रता।
- प्रमुख उद्योगों, परिवहन और खदान को सरकारी स्वामित्व एवं नियत्रंण में रखने का वायदा।
इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार पूर्ण स्वराज्य को परिभाषित किया और बताया कि जनता के लिये पूर्ण स्वराज्य का अर्थ क्या है। कांग्रेस ने यह भी घोषित किया कि ‘जनता के शोषण को समाप्त करने के लिये राजनीतिक आजादी के साथ-साथ आर्थिक आजादी भी आवश्यक है’।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन
दिल्ली समझौते के प्रावधान के अंतर्गत कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिये 29 अगस्त 1931 को लंदन रवाना हुये। 7 सितम्बर 1931 से 1 दिसम्बर 1931 तक चले इस सम्मेलन में गांधीजी के ‘राजपूताना’ नामक जहाज में महादेव देसाई, मदनमोहन मालवीय, देवदास गांधी, घनश्यामदास बिड़ला एंव मीरा बेन भी थीं। यद्यपि इस गोलमेज सम्मेलन से गांधीजी को कुछ विशेष प्राप्त होने की उम्मीद नहीं थी क्योंकि-
- ब्रिटेन में चर्चिल के नेतृत्व में दक्षिण पंथी खेमे ने ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस को बराबरी का दर्जा देकर बात करने का तीव्र विरोध किया। उसने भारत में और सुदृढ़ ब्रिटिश शासन का माग की। ब्रिटन में रैम्जे मैक्डोनाल्ड के नेतृत्व में बनी लेबर पार्टी में रूढ़िवादी सदस्यों का बोलबाला था तथा इसी समय सेमुअल होअर को भारत का गृहसचिव नियुक्त किया गया, जो कि घोर दक्षिणपंथी था।
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में मुख्यतया रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक एवं ब्रिटिश राजभक्तों के प्रतिनिधि थे, जिनका उपयोग साम्राज्यवादी सरकार ने यह प्रदर्शित करने के लिये किया कि कांग्रेस सभी भारतीयों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था नहीं है। साथ ही सरकार का मकसद था कि हर मोर्चे पर गांधी जी को परास्त किया जाये।
- अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर शीघ्र ही सम्मेलन में गतिरोध पैदा हो गया। मुसलमानों, ईसाईयों, आंग्ल-भारतीयों एवं दलितों ने पृथक प्रतिनिधित्व की मांग प्रारंभ कर दी। ये सभी आपस में मिलकर ‘अल्पसंख्यक गठजोड़’ के रूप में संगठित हो गये। किंतु गांधीजी ने साम्प्रदायिक आधार पर किसी भी संवैधानिक प्रस्ताव का अंत तक विरोध किया।
- भारतीय रजवाड़े भी संघ बनाने के मुद्दे पर ज्यादा उत्साहित नहीं थे। मुख्यतः उस स्थिति में जब सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर कांग्रेस, केंद्र में सरकार का गठन करे।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, रेम्जे मैकडोनाल्ड की इस घोषणा के साथ संपन्न हुआ-
- दो मुस्लिम प्रांतों-उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत एवं सिंध का गठन।
- भारतीय सलाहकारी परिषद की स्थापना।
- तीन विशेषज्ञ समितियों- वित्त, मताधिकार एवं राज्यों संबंधी समितियों का गठन
- यदि भारतीयों में सहमति नहीं हो सकी तो सर्वसम्मत साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का द्वितीय चरण
अस्थायी शांति का काल मार्च-दिसम्बर 1931
इस काल में भी विभिन्न गतिविधियों ने भारतीयों में साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष की भावना को जीवित रखा। संयुक्त प्रांत में कांग्रेस-लगान में कमी करने, बकाया लगान को माफ करने तथा लगान अदा न करने के कारण काश्तकारों को उनकी भूमि से बेदखल करने की प्रक्रिया पर रोक लगाने की मांग को लेकर प्रारम्भ किये गये आंदोलन को नेतृत्व प्रदान कर रही थी।
उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में हुकूमत ने खुदाई खिदमतगार के कार्यकर्ताओं एवं उन किसानों पर कठोर दमनात्मक कार्रवाई की, जो सरकार द्वारा बलपूर्वक लगान वसूल करने का विरोध कर रहे थे। बंगाल में सरकार भेदभावपूर्ण अध्यदेशों के द्वारा शासन चला रही थी तथा आतंकवाद से निबटने के नाम पर उसने हजारों लोगों को कारावास में डाल दिया था।
सितम्बर 1931 में हिजली जेल में राजनीतिक बंदियों पर गोली चलाई गयी, जिसमें दो लोगों की मृत्यु हो गयी।
सरकार का परिवर्तित रुखः दिल्ली समझौते से उच्च ब्रिटिश अधिकारियों के सम्मुख यह तथ्य उभरकर सामने आया कि इस समझौते से कांग्रेस की प्रतिष्ठा एवं भारतीयों के उत्साह में वृद्धि हुयी है तथा ब्रिटिश सरकार की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा है। फलतः उन्होंने यथास्थिति को परिवर्तित करने की योजना बनायी। इस योजना के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने तीन प्रावधानों को अपनाने की रणनीति बनायी-
- गांधीजी को पुनः कोई जन-आंदोलन प्रारंभ करने की अनुमति नहीं दी जायेगी।
- कांग्रेस की सद्भावना आवश्यक नहीं है। अपितु इसके स्थान पर उन लोगों का सहयोग एवं समर्थन अति आवश्यक है, जिन्होंने कांग्रेस के विरुद्ध हुकूमत का साथ दिया है, उदाहरणार्थ-सरकारी सेवक एवं राजभक्त इत्यादि।
- राष्ट्रीय आंदोलन को अब ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसारित एवं संगठित होने की अनुमति नहीं दी जायेगी।
कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः प्रारंभ किये जाने की घोषणा के पश्चात भारत के नये वायसराय विलिंगडन ने 31 दिसम्बर 1931 को गांधीजी से मिलने से इंकार कर दिया। 4 जनवरी 1932 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया।
अध्यादेशों का राज
4 जनवरी 1932 को गांधीजी की गिरफ्तारी के साथ ही सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन पर पूर्णरुपेण हमला प्रारंभ कर दिया। प्रशासन को असीमित और मनमानी शक्तियां देने वाले अनेक अध्यादेश जारी किये गये तथा ‘नागरिक-सैनिक कानून’ की शुरुआत हो गयी। सभी स्तरों पर कांग्रेस के संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया, राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में ठूस दिया गया, कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले लोगों को यातनायें दी गयीं, नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया, सम्पत्तियां कुर्क कर ली गयीं तथा गांधीजी के आश्रमों पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया गया। अंग्रेजी सरकार के इस दमन का शिकार महिलायें भी हुयीं। प्रेस के खिलाफ भी कार्रवाई की गयी तथा राष्ट्रवादी साहित्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
जनता की प्रतिक्रियाः सरकारी दमन के खिलाफ जनता में तीव्र रोष था। यद्यपि जनता असंगठित तथा अपरिपक्व थी किंतु उसकी प्रतिक्रिया व्यापक थी। केवल प्रथम चार महीनों में ही लगभग 80 हजार सत्याग्रहियों को जेल में डाल दिया गया। इनमें से अधिकांश शहरी और निर्धन ग्रामीण थे। विरोध प्रदर्शन के तरीकों में- शराब की दुकानों पर धरने, विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरने, अवैधानिक सम्मेलन, अहिंसक प्रदर्शन, राष्ट्रीय दिवस का आयोजन, राष्ट्रीय, झंडे का प्रतीकात्मक रोहण, चौकीदारी कर का भुगतान न करना, नमक सत्याग्रह, वन कानूनों का उल्लंघन तथा बम्बई के निकट गुप्त रेडियो ट्रांसमीटर की स्थपाना प्रमुख थे। सविनय अवज्ञा आदोलन के इस चरण में दो भारतीय रियासतों-कश्मीर एवं अलवर में तीव्र जन-प्रतिक्रिया का उभरना आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू था। किंतु इतना होने पर भी यह आंदोलन ज्यादा लंबे समय तक खिंच सका क्योंकि
गांधीजी तथा अन्य राष्ट्रवादी नेता, जन-प्रतिक्रिया को संगठित करने में पर्याप्त समय नहीं दे सके; तथा
जनता असंगठित एवं अपरिपक्व थी।
अंततः अप्रैल 1934 में गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आदोलन वापस लेने का निर्णय लिया। यद्यपि गांधीजी के निर्णय से जनता तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं में थोड़ी निराशा अवश्य हुयी किंतु उनमें कांग्रेस के प्रति निष्ठा कम नहीं हुयी। उन्होंने वास्तविक रूप से न सही दिल से स्वतंत्रता का संघर्ष अवश्य जीत लिया था।
साम्प्रदायिक निर्णय और पूना समझौता
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 को ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ की घोषणा की। साम्प्रदायिक निर्णय, उपनिवेशवादी शासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का एक और प्रमाण था।
साम्प्रदायिक निर्णय के प्रावधान
- मुसलमानों, सिखों एवं यूरोपियों को पृथक साम्प्रदायिक मताधिकार प्रदान किया गया।
- आंग्ल भारतीयों, भारतीय ईसाईयों तथा स्त्रियों को भी पृथक सांप्रदायिक मताधिकार प्रदान किया गया।
- प्रांतीय विधानमंडल में साम्प्रदायिक आधार पर स्थानों का वितरण किया गया।
- सभी प्रांतों को विभिन्न सम्प्रदायों के निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया।
- अन्य शेष मतदाता, जिन्हें पृथक निर्वाचन क्षेत्रों में मताधिकार प्राप्त नहीं हो सका था उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान का अधिकार प्रदान किया गया।
- बम्बई प्रांत में सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में से सात स्थान मराठों के लिये आरक्षित कर दिये गये।
- विशेष निर्वाचन क्षेत्रों में दलित जाति के मतदाताओं के लिये दोहरी व्यवस्था की गयी। उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों तथा विशेष निर्वाचन क्षेत्रों दोनों जगह मतदान का अधिकार दिया गया।
- सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में दलित जातियों के निर्वाचन का अधिकार बना रहा।
- दलित जातियों के लिये विशेष निर्वाचन की यह व्यवस्था बीस वर्षों के लिये की गयी।
- दलितों को अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी गयी।
कांग्रेस का पक्ष यद्यपि कांग्रेस साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध थी किंतु अल्पसंख्यकों से विचार-विमर्श किये बिना वह इसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के पक्ष में नहीं थी। इस प्रकार साम्प्रदायिक निर्णय से गहरी असहमति रखते हुये कांग्रेस ने निर्णय किया कि वह न तो साम्प्रदायिक निर्णय को स्वीकार करेगी न ही इसे अस्वीकार करेगी।
साम्प्रदायिक निर्णय द्वारा, दलितों को सामान्य हिन्दुओं से पृथक कर एक अल्पसंख्यक वर्ग के रूप मे मान्यता देने तथा पृथक प्रतिनिधित्व प्रदान करने का सभी राष्ट्रवादियों ने तीव्र विरोध किया।
गांधीजी की प्रतिक्रिया
गांधीजी ने साम्प्रदायिक निर्णय की राष्ट्रीय एकता एवं भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार के रूप में देखा। उनका मत था कि यह हिन्दुओं एवं दलित वर्ग दोनों के लिये खतरनाक है। उनका कहना था कि दलित वर्ग की सामाजिक हालत सुधारने के लिये इसमें कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। एक बार यदि पिछड़े एवं दलित वर्ग को पृथक समुदाय का दर्जा प्रदान कर दिया गया तो अश्पृश्यता को दूर करने का मुद्दा पिछड़ा जायेगा और हिन्दू समाज में सुधार की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जायेगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि पृथक निर्वाचक मंडल का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह अछूतों के सदैव अछूत बने रहने की बात सुनिश्चित करता है। दलितों के हितों की सुरक्षा के नाम पर न ही विधानमंडलों या सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने की आवश्यकता है और न ही उन्हें पृथक समुदाय बनाने की। अपितु सबसे मुख्य जरूरत समाज से अश्पृश्यता की कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंकने की है।
गांधीजी ने मांग की कि दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का निर्वाचन आत्म-निर्वाचन मंडल के माध्यम से वयस्क मताधिकार के आधार पर होना चाहिए। तथापि उन्होंने दलित वर्ग के लिये बड़ी संख्या में सीटें आरक्षित करने की मांग का विरोध नहीं किया। अपनी मांगों को स्वीकार किये जाने के लिये 20 सितंबर 1932 से गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गये। कई राजनीतिज्ञों ने गांधीजी के अनशन को राजनीतिक आंदोलन की सही दिशा से भटकना कहा। इस बीच विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नेता, जिनमें एम.सी. रजा, मदनमोहन मालवीय तथा बी.आर. अम्बेडकर सम्मिलित थे, सक्रिय हो गये। अंततः एक समझौता हुआ, जिसे पूना समझौता या पूनापैक्ट के नाम से जाना जाता है।
पूना समझौता
सितंबर 1932 में डा. अम्बेडकर तथा अन्य हिन्दू नेताओं के प्रयत्न से सवर्ण हिन्दुओं तथा दलितों के मध्य एक समझौता किया गया। इसे पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार-
- दलित वर्ग के लिये पृथक निर्वाचक मंडल समाप्त कर दिया गया तथा व्यवस्थापिका सभा में अछूतों के स्थान हिन्दुओं के अंतर्गत ही सुरक्षित रखे गये।
- लेकिन प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या 47 से बढ़कर 147 कर दी गयी।
- मद्रास में 30, बंगाल में 30, मध्य प्रांत एवं संयुक्त प्रांत में 20-20, बिहार एवं उड़ीसा में 18-18, बम्बई एवं सिंध में 15-15, पंजाब में 8 तथा असम में 7 स्थान दलितों के लिये सुरक्षित किये गये।
- केंद्रीय विधानमंडल में दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिये संयुक्त व्यवस्था को मान्यता दी गयी।
- दलित वर्ग को सार्वजनिक सेवाओं तथा स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गयी।
- सरकार ने पूना समझौते को साम्प्रदायिक निर्णय का संशोधित रूप मानकर उसे स्वीकार कर लिया।
गांधीजी का हरिजन अभियान
सांप्रदायिक निर्णय द्वारा भारतीयों को विभाजित करने तथा पूना पैक्ट के द्वारा हिन्दुओं से दलितों को पृथक करने की व्यवस्थाओं ने गांधीजी को बुरी तरह आहत कर दिया था। फिर भी गांधीजी ने पूना समझौते के प्रावधानों का पूरी तरह पालन किये जाने का वचन दिया। अपने वचन को पूरा करने के उद्देश्य से गांधीजी ने अपने अन्य कार्यों को छोड़ दिया तथा पूर्णरूपेण ‘अश्पृश्यता निवारण अभियान’ में जुट गये। उन्होंने अपना अभियान यरवदा जेल से ही प्रारंभ कर दिया था तत्पश्चात अगस्त 1933 में जेल से रिहा होने के उपरांत उनके आदोलन में और तेजी आ गयी।
अपनी कारावास की अवधि में ही उन्होंने सितम्बर 1932 में ‘अखिल भारतीय अश्पृश्यता विरोधी लीग’ का गठन किया तथा जनवरी 1933 में उन्होंने हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। जेल से रिहाई के उपरांत वे सत्याग्रह आश्रम वर्धा आ गये। साबरमती आश्रम, गांधीजी ने 1930 में ही छोड़ दिया था और प्रतिज्ञा की थी कि स्वराज्य मिलने के पश्चात ही वे साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) में वापस लौटेंगे। 7 नवंबर 1933 को वर्धा से गांधीजी ने अपनी ‘हरिजन यात्रा’ प्रारंभ की। नवंबर 1933 से जुलाई 1934 तक गांधीजी ने पूरे देश की यात्रा की तथा लगभग 20 हजार किलोमीटर का सफर तय किया। अपनी यात्रा के द्वारा गांधीजी ने स्वयं द्वारा स्थापित संगठन ‘हरिजन सेवक संघ’ जगह-जगह पर कोष एकत्रित करने का कार्य भी किया। गांधीजी की इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य था-हर रूप में अश्पृश्यता को समाप्त करना। उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से आग्रह किया की गांवों का भ्रमण हरिजनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उत्थान का कार्य करें। दलितों को ‘हरिजन’ नाम सर्वप्रथम गांधीजी ने ही दिया था। हरिजन उत्थान के इस अभियान में गांधीजी 8 मई व 16 अगस्त 1933 को दो बार लंबे अनशन पर बैठे। उनके अनशन का उद्देश्य, अपने प्रयासों की गंभीरता एवं अहमियत से अपने समर्थकों को अवगत कराना था। अनशन की रणनीति ने राष्ट्रवादी खेमे को बहुत प्रभावित किया। बहुत से लोग भावुक हो गये।
अपने हरिजन आंदोलन के दौरान गांधीजी को हर कदम पर सामाजिक प्रतिक्रियावादियों तथा कट्टरपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा। उनके खिलाफ प्रदर्शन किये तथा उन पर हिंदूवाद पर कुठाराघात करने का आरोप लगाया गया। सविनय अवज्ञा आदोलन तथा कांग्रेस का विरोध करने के निमित्त, सरकार ने इन प्रतिक्रियावादी तत्वों का भरपूर साथ दिया। अगस्त 1934 में लेजिस्लेटिव एसेंबली में ‘मंदिर प्रवेश विधेयक’ को गिराकर, सरकार ने इन्हें अनुग्रहित करने का प्रयत्न किया। बंगाल में कट्टरपंथी हिन्दू विचारकों ने पूना समझौते द्वारा हरिजनों को हिन्दू अल्पसंख्यक का दर्जा दिये जाने की अवधारणा को पूर्णतयाः खारिज कर दिया।
अभियान का प्रभाव
गांधीजी ने बार-बार यह बात दुहराई कि उनके हरिजन अभियान का उद्देश्य राजनीतिक नहीं है अपितु यह हिन्दू समाज एवं हिन्दुत्व का शुद्धीकरण आंदोलन है। वास्तव में गांधीजी ने अपने हरिजन अभियान के दौरान केवल हरिजनों के लिये ही कार्य नहीं किया। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को बताया कि जनआंदोलन के निष्क्रिय या समाप्त हो जाने पर वे स्वयं को किस प्रकार के रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं। उनके आंदोलन ने राष्ट्रवाद के संदेश को हरिजनों तक पहुंचाया। यह वह वर्ग था, जिसके अधिकांश सदस्य खेतिहर मजदूर थे तथा धीरे-धीरे किसान आंदोलन तथा राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे।
आगे की रणनीति पर बहस
सविनय अवज्ञा आंदोलन की वापसी के उपरांत राष्ट्रवादियों के मध्य भविष्य की रणनीति के संबंध में द्वि-स्तरीय बहस प्रारंभ हुई-प्रथम, निकट भविष्य में राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति कैसी हो तथा द्वितीय, 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत होने वाले 1937 के आगामी प्रांतीय चुनावों में, सत्ता में भागेदारी के प्रश्न पर किस रणनीति का अनुगमन किया जाये।
प्रथम चरण की व्याख्या
इस चरण में तीन अवधारणायें सामने आयीं। इनमें से प्रथम दो परम्परागत प्रतिक्रियावादी अवधारणायें थीं, जबकि तीसरी, कांग्रेस में सशक्त वामपंथी विचारों का प्रतिनिधित्व कर रही थी। ये तीनों अवधारणायें निम्नानुसार थीं-
- पहली अवधारणा के अनुसार, गांधीवाद की तर्ज पर रचनात्मक कार्य प्रारंभ किया जाये।
- दूसरी अवधारणा के अनुसार, एक बार पुनः संवैधानिक तौर-तरीकों से संघर्ष प्रारंभ करना चाहिए। इस मत के समर्थक 1934 के भावी केंद्रीय विधान सभा के लिये होने वाले चुनावों में भाग लेने का भी समर्थन कर रहे थे। इस मत के समर्थकों में आसफ अली, सत्यमूर्ति, डा. एम.ए. अंसारी, भूलाभाई देसाई तथा बी.सी. राय प्रमुख थे। इन सभी का मत था कि-
राजनीतिक निराशा के इस दौर में, जबकि कांग्रेस जन-आंदोलन जारी रखने की अवस्था में नहीं हैं, उसे चुनावों में भाग लेकर विधानमंडल में प्रवेश करना चाहिए तथा राजनीतिक संघर्ष जारी रखना चाहिए, जिससे जनता का मनोबल गिरने न पाए।
चुनाव में भाग लेने का तात्पर्य यह नहीं है कि वे केवल संवैधानिक राजनीतिक संघर्ष के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति में विश्वास रखते हैं। इसका मतलब एक अन्य राजनीतिक मोर्चा प्रारंभ करना है।
इस नये राजनीतिक मोर्चे से कांग्रेस मजबूत होगी, जनता में उसका प्रभाव बढ़ेगा तथा जनता अगले दौर के आंदोलन के लिये तैयार हो सकेगी।
विधान मंडल में कांग्रेस की उपस्थिति उसे नये राजनैतिक संघर्ष के लिये उपयुक्त मंच प्रदान करेगी।
- तीसरी अवधारणा का समर्थन कांग्रेस का सशक्त वामपंथी विचारों का समर्थक दल कर रहा था, जिसका नेतृत्व नेहरू के हाथों में था। यह गुट सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेकर उसके स्थान पर रचनात्मक कार्य प्रारंभ करने तथा विधान मंडल में भागेदारी, दोनों मतों का विरोधी था।
इनका मत था कि ये दोनों तरीके जन-आंदोलन को उसके पथ से विमुख कर देंगे तथा उपनिवेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष के मुख्य मुद्दे से जनता का ध्यान दूसरी ओर मोड़ देंगे। ये जन-आंदोलन को जारी रखने के पक्षधर थे। इनका मानना था कि आर्थिक संकट का यह दौर क्रांतिकारी आंदोलन का उचित समय है तथा जनता संघर्ष के लिये पूरी तरह तैयार है।
नेहरू के विचार
नेहरू ने कहा कि “न केवल भारतीय जनता अपितु पूरे विश्व की जनता के सम्मुख इस समय मुख्य लक्ष्य पूंजीवाद का समूल उन्मूलन तथा समाजवाद की स्थापना है”। नेहरू के विचार से सविनय अवज्ञा आदोलन को वापस लेना, रचनात्मक कार्य प्रारंभ करना तथा संसद में भागेदारी करना एक प्रकार की आध्यात्मिक पराजय, आदर्शा का समर्पण तथा क्रातिकारी पथ का परित्याग कर सुधारवादी पथ को अपनाने जैसा था।
उन्होंने सुझाव दिया कि समाज के वर्गीय चरित्र की वास्तविकता और वर्ग संघर्ष की महत्ता को स्वीकार करते हुये समाज के स्वार्थपरक तत्वों को जनसाधारण के हितों की ओर मोड़ा जाना चाहिए। जमीदारों तथा पूंजीपतियों के विरुद्ध मजदूरों तथा किसानों के संघर्ष तथा उनकी मांगों का समर्थन किया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि मजदूरों और किसानों को वर्गीय आधार पर संगठित किया जाए जिससे कांग्रेस इन संगठनों की गतिविधियों एवं नीतियों को निर्देशित कर सके। नेहरू का मानना था कि वर्ग संघर्ष के अभाव में वास्तविक साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन नहीं चलाया जा सकता।
नेहरू द्वारा संघर्ष-समझौता-संघर्ष की रणनीति का विरोध
गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस के एक बड़े तबके का मानना था कि साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध पहले संवैधानिक तरीके से जबरदस्त संघर्ष प्रारंभ करके आदोलन अचानक वापस ले लिया जाये, फिर सरकार के सुधारवादी कदमों से समझौता कर पुनः समय आने पर संघर्ष प्रारंभ कर दिया जाए। क्योंकि तीव्र संघर्ष के पश्चात् संघर्ष के सुप्तावस्था में आने पर जनसामान्य को अपनी सार्मथ्य बढ़ाने का मौका मिलेगा तथा सरकार को राष्ट्रवादी मांगों का प्रत्युत्तर देने का अवसर दिया जा सकेगा। जनसामान्य को अनिश्चितकालीन बलिदान की रणनीति नहीं अपनानी चाहिए। लेकिन यदि सरकार ने राष्ट्रवादी मांगों के संबंध में कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया तो जनसाधारण को पूरे सामर्थ्य से पुनः संघर्ष प्रारंभ कर देना चाहिए। इसे ही ‘संघर्ष-समझौता-संघर्ष की रणनीति’ कहते हैं।
नेहरू, संघर्ष-समझौता-संघर्ष की इस रणनीति से असहमत थे। उन्होंने तर्क दिया कि लाहौर अधिवेशन में पूर्णस्वराज्य के कार्यक्रम को तय किये जाने के पश्चात भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन उस अवस्था में पहुंच गया है, जहां हमें उपनिवेशिक सत्ता से तब तक संघर्ष करते रहना होगा, जब तक कि हम उसे पूर्णरूपेण उखाड़ फेंकने में सफल न हो जायें। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि कांग्रेस को ‘निरंतर संघर्ष की नीति’ का पालन करना चाहिए तथा उसे साम्राज्यवादी ढांचे से सहयोग एवं समझौते के जाल में नहीं फंसना चाहिए। उन्होंने कांग्रेस की चेताया कि अत्यंत शक्तिशाली औपनिवेशिक सत्ता को आने-चार आने की ताकत द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता। अपितु इसके लिये सतत संघर्ष अपरिहार्य है। उन्होंने संघर्ष-समझौता-संघर्ष की रणनीति का विरोध करते हुये उसके स्थान पर संघर्ष-विजय की रणनीति का प्रतिपादन किया।
अंततः सत्ता में भागेदारी पर सहमति
इस समय भारतीय राष्ट्रवादी जहां एक ओर असमंजस की स्थिति में थे, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश हुकूमत यह मानकर चल रही थी कि कांग्रेस में सूरत विभाजन की तरह शीघ्र ही एक और विभाजन होना लगभग तय है। किंतु इस अवसर पर गांधीजी ने दूरदर्शितापूर्ण नीति अपनाकर कांग्रेस को विभाजित होने से बचा लिया। यह जानते हुए भी कि स्वतंत्रता प्राप्त करने का सबसे प्रमुख और एकमात्र तरीका सत्याग्रह ही है, उन्होंने कॉसिलों में भागेदारी के समर्थकों की मांगे स्वीकार कर लीं। उन्होंने कहा कि “संसदीय राजनीति से स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती किंतु वे सभी कांग्रेस जन जो न तो स्वयं को रचनात्मक कार्यों में लगा सकते और न ही सत्याग्रह में भाग ले सकते, वे सभी संसदीय राजनीति के माध्यम से स्वयं को सक्रिय बनाये रख सकते हैं बशर्ते कि वे संविधानवादी या सुविधावादी न बन जायें”। साथ ही गांधीजी ने वामपंथियों को आश्वस्त करते हुये भी कहा कि “सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना आवश्यक एवं तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में उचित कदम था, लेकिन इसका तात्पर्य राजनीतिक अवसरवादिता के सम्मुख समर्पण या साम्राज्यवाद से समझौता नहीं है”।
मई 1934 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन पटना में हुआ, जहां चुनाव में भाग लेने के लिये एक संसदीय बोर्ड का गठन किया गया। गांधीजी ने महसूस किया कि कांग्रेस में उभर रही सबसे सशक्त धारा से वह कट से गये हैं। वे जानते थे कि बुद्धजीवी वर्ग का एक बड़ा तबका संसदीय राजनीति के पक्ष में है, जबकि वे मौलिक तौर पर संसदीय राजनीति के विरोधी थे। बुद्धिजीवी वर्ग का दूसरा खेमा गांधी जी के रचनात्मक कार्यो यथा-चरखा कातने इत्यादि से असहमत था, जिसे गांधीजी ‘राष्ट्र का दूसरा हृदय’ कहते थे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में समाजवादी गुट भी गांधीजी की नीतियों से असहमत था। इसी कारण 1934 में गांधीजी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और कहा कि वे “कांग्रेस एवं उसमें उभरती नयी विचारधारा पर नैतिक दबाव डालकर उसे रोकना नहीं चाहता क्योंकि यह मेरे अहिंसा के सिद्धांत के विपरीत है”।
नेहरू और समाजवादियों ने भी राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा। कांग्रेस के विरोधियों का मत था कि नेहरू एवं समाजवादियों के द्वारा कांग्रेस में किये जा रहे मौलिक परिवर्तनों से कांग्रेस विभाजित हो जायेगी, किंतु ऐसा नहीं हुआ। नेहरू एवं समाजवादियों ने इस खतरे को भांपकर अपनी प्राथमिकतायें तय कर लीं। उनका मत था कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ करने से पहले उपनिवेशी शासन को समाप्त करना आवश्यक है तथा साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में कांग्रेस का सहयोग करना जरुरी है। क्योंकि कांग्रेस ही भारतीयों का एकमात्र प्रमुख संगठन है।
नेहरू एवं समाजवादियों का तर्क था कि वैचारिक या राजनीतिक शुद्धीकरण के नाम पर कांग्रेस से त्यागपत्र देने या उससे नाता तोड़ने की बजाय कांग्रेस में रहकर उसे जुझारू चरित्र प्रदान करना कहीं ज्यादा आवश्यक है। दक्षिणपंथियों ने भी इस मसले पर सही रणनीति अपनायी। नवंबर 1934 में केंद्रीय विधान सभा के लिये हुये चुनाव में कांग्रेस ने प्रशंसनीय प्रदर्शन करते हुये भारतियों के लिये आरक्षित 75 सीटों में से 45 सीटें जीत लीं।
स्रोत – आधुनिक भारत का इतिहास द्वारा राजीव अहीर…
VISHWA DEEPAK SHUKLA Apr 9, 2017
Thanks sr ji itni acchi jankari dene ke liye